सर टकराएँ जिस से वो दीवार कहाँ
जिस्म कहाँ और रूह का ये आज़ार कहाँ
तन्हाई का कब ये आलम था पहले
छूट गए हैं मुझ से मेरे यार कहाँ
अंधे शहर के सब आईने अंधे हैं
ऐसे में ख़ुद अपना भी दीदार कहाँ
टूटी टूटी चंद शबीहें बाक़ी हैं
दिल में अब यादों का वो अम्बार कहाँ
मेरे अंदर मुझ से लड़ता है कोई
इस पैकार में जीत कहाँ और हार कहाँ
रूह दो-नीम और जिस्म भी है रेज़ा रेज़ा
ख़ाक उड़ाता फिरता है पिंदार कहाँ
क्यूँ ये कश्ती डोल रही है लहरों पर
टूटा है इस कश्ती का पतवार कहाँ

ग़ज़ल
सर टकराएँ जिस से वो दीवार कहाँ
अकबर हैदरी