EN اردو
समेट कर तिरे जल्वों की रौशनी मैं ने | शाही शायरी
sameT kar tere jalwon ki raushni maine

ग़ज़ल

समेट कर तिरे जल्वों की रौशनी मैं ने

जौहर ज़ाहिरी

;

समेट कर तिरे जल्वों की रौशनी मैं ने
दिल-ओ-निगाह की दुनिया सँवार ली मैं ने

मिज़ाज-ए-हुस्न किसी तौर से बदल न सका
गवारा समझा ग़म-ए-ना-गवार भी मैं ने

तमाम सख़्तियाँ राह-ए-तलब की सहल हुईं
तुम्हारे नाम की तस्बीह जब पढ़ी मैं ने

तुम्हारा इश्क़ हुआ है कई ग़मों का सबब
कि इक जहाँ की ख़रीदी है दुश्मनी मैं ने

नुक़ूश-ए-पा पे जबीं ऐन बे-ख़ुदी में रही
भुलाए कब भला आदाब-ए-आशिक़ी मैं ने

ये कौन दे गया मुझ को सुकून-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र
ये किस का नाम लिया था अभी अभी मैं ने

मिरी हयात-ए-दो-रोज़ा का क्या बुरी कि भली
गुज़ारनी पड़ी 'जौहर' गुज़ार दी मैं ने