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समझ सके न जिसे कोई भी सवाल ऐसा | शाही शायरी
samajh sake na jise koi bhi sawal aisa

ग़ज़ल

समझ सके न जिसे कोई भी सवाल ऐसा

शमीम हनफ़ी

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समझ सके न जिसे कोई भी सवाल ऐसा
बुना है साँस के धागों ने एक जाल ऐसा

कभी दिमाग़ था मुझ को भी ख़ुद-परस्ती का
पलट के ज़ेहन में आया न फिर ख़याल ऐसा

मैं आसमाँ तो न था जिस में चाँद छुप जाते
हुआ न होगा किसी का कभी ज़वाल ऐसा

तमाम उम्र नए लफ़्ज़ की तलाश रही
किताब-ए-दर्द का मज़मूँ था पाएमाल ऐसा

किनार-ए-आब न पहुँचेगी जान की कश्ती
बहुत दिनों से है पानी में इश्तिआल ऐसा