EN اردو
सकूँ मिला है मगर इज़्तिराब जैसा है | शाही शायरी
sakun mila hai magar iztirab jaisa hai

ग़ज़ल

सकूँ मिला है मगर इज़्तिराब जैसा है

मुमताज़ राशिद

;

सकूँ मिला है मगर इज़्तिराब जैसा है
तिरे बदन का फ़ुसूँ भी शराब जैसा है

हँसे वो लाख मगर ज़ब्त-ए-ग़म की तहरीरें
न छुप सकेंगी कि चेहरा किताब जैसा है

मिलेगा पास से कुछ भी न ख़ाक ओ ख़ूँ के सिवा
पलट चलें कि ये मंज़र सराब जैसा है

न कोई पेड़ न साया न आहटों का गुमाँ
ये जुस्तुजू का सफ़र भी अज़ाब जैसा है

वो सामने है मगर उस को छू नहीं सकता
मैं पूजता हूँ वो पैकर जो ख़्वाब जैसा है

सुलग रहे हो यूँही ग़म की धूप से 'राशिद'
वो हाथ चूम के देखो गुलाब जैसा है