सैल-ए-ख़ूँ पैकर-ए-अशआ'र में ढलता ही नहीं
ग़म वो लावा है जो सीने से उबलता ही नहीं
आइने लाख मगर एक सी तस्वीरें हैं
किस को देखूँ मैं कोई शक्ल बदलता ही नहीं
जो भटकता था कभी धूप के सहराओं में
अब वो साया मिरी चौखट से निकलता ही नहीं
कोई तहरीर मिटाएँ तो धुआँ उठता है
दिल वो भीगा हुआ काग़ज़ है कि जलता ही नहीं
मुझ से मुँह फेरने वाले मिरी क़ीमत पहचान
मैं वो सिक्का हूँ जो बाज़ार में चलता ही नहीं
कौन छीनेगा मिरी सोच की दौलत 'राशिद'
जिस्म का बोझ तो लोगों से सँभलता ही नहीं

ग़ज़ल
सैल-ए-ख़ूँ पैकर-ए-अशआ'र में ढलता ही नहीं
मुमताज़ राशिद