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सहराओं में जा पहुँची है शहरों से निकल कर | शाही शायरी
sahraon mein ja pahunchi hai shahron se nikal kar

ग़ज़ल

सहराओं में जा पहुँची है शहरों से निकल कर

सलीम बेताब

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सहराओं में जा पहुँची है शहरों से निकल कर
अल्फ़ाज़ की ख़ुश्बू मिरे होंटों से निकल कर

सीने को मिरे कर गया इक आन में रौशन
इक नूर का कौंदा तिरी आँखों से निकल कर

मैं क़तरा-ए-शबनम था मगर आज हूँ सूरज
आ बैठा हूँ मैं सदियों में लम्हों से निकल कर

हो जाएँगे बस्ती के दर-ओ-बाम मुनव्वर
सूरज अभी चमकेगा दरीचों से निकल कर

क्या जानिए अब कौन सी जानिब को गया है
इक ज़र्द सा चेहरा तिरी गलियों से निकल कर

हर सम्त था इक तल्ख़ हक़ाएक़ का समुंदर
देखा जो तसव्वुर के जज़ीरों से निकल कर

वो प्यास है मिट्टी पे ज़बाँ फेर रहे हैं
हम आए हैं एहसास के शो'लों से निकल कर

हर आन सदा देते हैं मासूम उजाले
'बेताब' चले आओ धुँदलकों से निकल कर