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सहरा में जो दीवाने से बाद-ए-सबा उलझी | शाही शायरी
sahra mein jo diwane se baad-e-saba uljhi

ग़ज़ल

सहरा में जो दीवाने से बाद-ए-सबा उलझी

जुंबिश ख़ैराबादी

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सहरा में जो दीवाने से बाद-ए-सबा उलझी
हर मौज-ए-गुल-ए-तर से वो ज़ुल्फ़-ए-दोता उलझी

इल्ज़ाम नहीं तुझ पर ऐ बादिया-पैमाई
दीवाने की क़िस्मत से सहरा की हवा उलझी

पाबंद-ए-नज़ाकत थी नैरंगी-ए-गुल-चीनी
सुर्ख़ी-ए-गुल-ए-तर से हाथों की हिना उलझी

या हुस्न-ए-कशिश में जाँ और आप ने डाली है
या शोख़ी-ए-फ़ितरत है दर-पर्दा हया उलझी

ख़ामोश तजल्ली की फ़ितरत मैं समझता हूँ
क्यूँ ख़िर्मन-ए-दिल से ही ऐ बर्क़-ए-अदा उलझी

दिल में तिरी यादों ने वो बिजलियाँ चमकाईं
आँखों से मरी आ कर सावन की घटा उलझी

ज़ामिन मिरी उलझन के उलझे हुए गेसू हैं
बे-वज्ह मिरी 'जुम्बिश' कब तब-ए-रसा उलझी