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सहर अंजान सी मग़्मूम सा ख़्वाब-ए-वफ़ा क्यूँ है | शाही शायरी
sahar anjaan si maghmum sa KHwab-e-wafa kyun hai

ग़ज़ल

सहर अंजान सी मग़्मूम सा ख़्वाब-ए-वफ़ा क्यूँ है

मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब

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सहर अंजान सी मग़्मूम सा ख़्वाब-ए-वफ़ा क्यूँ है
न जाने क़ुर्बतों के नाम से ये फ़ासला क्यूँ है

अँधेरे ज़हर बरसाने लगे हैं ज़िंदगानी पर
किसी के प्यार का महताब ऐसे में ख़फ़ा क्यूँ है

ज़रा जब रात ढलती है तो ख़्वाबों के झरोके से
हसीं मानूस शक्लों का सवेरा झाँकता क्यूँ है

बहार आई फ़ज़ा महकी ख़ुशी ने हाथ फैलाए
तो फिर ये ज़िंदगी आवारा-ए-दश्त-ए-वफ़ा क्यूँ है

शब-ए-ग़म कट गई लेकिन उजालों से गले मिल कर
सहर की आरज़ू इतनी सहर ना-आश्ना क्यूँ है

मिरे अन्फ़ास से आती है ख़ुश्बू-ए-सहर कैसी
सुकूत-ए-बाम-ओ-दर में आज तेरी ही सदा क्यूँ है

कोई दिल से नहीं गुज़रा तो 'साक़िब' कौन बतलाए
किसी पाज़ेब की झंकार से दिल गूँजता क्यूँ है