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सफ़ीर-ए-शाम सुब्ह का नक़ीब कैसे हो गया | शाही शायरी
safir-e-sham subh ka naqib kaise ho gaya

ग़ज़ल

सफ़ीर-ए-शाम सुब्ह का नक़ीब कैसे हो गया

ख़ावर अहमद

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सफ़ीर-ए-शाम सुब्ह का नक़ीब कैसे हो गया
जो शब को शब न लिख सका अदीब कैसे हो गया

अभी तो ख़्वाब देखने की उम्र थी मिरी मगर
अभी से जागना मिरा नसीब कैसे हो गया

इसी की आब-ओ-ख़ाक से मिरी नुमूद है तो फिर
मिरा वतन मिरे लिए अजीब कैसे हो गया

मिरे लहू से जिस के बर्ग-ओ-बार में बहार है
वही शजर मिरे लिए सलीब कैसे हो गया

मिरी ज़मीं तो सीम-ओ-ज़र से क़ीमती ज़मीन है
मगर ये मेरा मुल्क यूँ ग़रीब कैसे हो गया