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सफ़र-ए-ज़िंदगी नहीं आसाँ | शाही शायरी
safar-e-zindagi nahin aasan

ग़ज़ल

सफ़र-ए-ज़िंदगी नहीं आसाँ

रिफ़अत सुलतान

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सफ़र-ए-ज़िंदगी नहीं आसाँ
हर तरफ़ राह में हैं संग-ए-गिराँ

दूर हो जाएँ दुख ज़माने के
साहब-ए-दर्द हो अगर इंसाँ

सोचना पड़ गया ज़माने को
मिट के भी हम न जब हुए अर्ज़ां

तू इसे तंज़ क्यूँ समझता है
मैं तो हालात कर रहा हूँ बयाँ

जी रहा हूँ कुछ इस तरह जैसे
आग लग जाए और हो न धुआँ

तू मिरी बात का जवाब न दे
मैं समझता हूँ ख़ामुशी की ज़बाँ

नुक्ता-चीनी हसद दिल-आज़ारी
और क्या है मता-ए-बे-हुनराँ

मुझ को उस को तलाश है 'रिफ़अत'
जो मिरे दिल में है कहीं पिन्हाँ