सच है जब भी कोई हर्फ़ उस की ज़बाँ से निकला
ज़हर में डूबा हुआ तीर कमाँ से निकला
दूर तक फैल गया हुस्न-ए-मआनी का तिलिस्म
ख़ूब मफ़्हूम मिरे लफ़्ज़-ओ-बयाँ से निकला
मैं तिरे तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ से बस इतना समझा
एक पत्थर था जो शीशे के मकाँ से निकला
इक हक़ीक़त पस-ए-अफ़्साना थी रौशन रौशन
वो जो काबे को गया शहर-ए-बुताँ से निकला
उस तरफ़ दार की मंज़िल थी इधर कूचा-ए-यार
मुझ को जाना था कहाँ और कहाँ से निकला
मंज़िल-ए-ज़ात मिली रूह हुई आसूदा
सिलसिला तार-ए-नफ़स का रग-ए-जाँ से निकला
बस कि था पेश-ए-नज़र हुस्न-ए-अज़ल का जल्वा
'नाज़' हर कश्मकश-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ से निकला
ग़ज़ल
सच है जब भी कोई हर्फ़ उस की ज़बाँ से निकला
नाज़ क़ादरी