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सच है जब भी कोई हर्फ़ उस की ज़बाँ से निकला | शाही शायरी
sach hai jab bhi koi harf uski zaban se nikla

ग़ज़ल

सच है जब भी कोई हर्फ़ उस की ज़बाँ से निकला

नाज़ क़ादरी

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सच है जब भी कोई हर्फ़ उस की ज़बाँ से निकला
ज़हर में डूबा हुआ तीर कमाँ से निकला

दूर तक फैल गया हुस्न-ए-मआनी का तिलिस्म
ख़ूब मफ़्हूम मिरे लफ़्ज़-ओ-बयाँ से निकला

मैं तिरे तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ से बस इतना समझा
एक पत्थर था जो शीशे के मकाँ से निकला

इक हक़ीक़त पस-ए-अफ़्साना थी रौशन रौशन
वो जो काबे को गया शहर-ए-बुताँ से निकला

उस तरफ़ दार की मंज़िल थी इधर कूचा-ए-यार
मुझ को जाना था कहाँ और कहाँ से निकला

मंज़िल-ए-ज़ात मिली रूह हुई आसूदा
सिलसिला तार-ए-नफ़स का रग-ए-जाँ से निकला

बस कि था पेश-ए-नज़र हुस्न-ए-अज़ल का जल्वा
'नाज़' हर कश्मकश-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ से निकला