सभी तो हैं मगर अब मेहरबाँ कहाँ है कोई
नज़र में प्यार लिए दरमियाँ कहाँ है कोई
इक अपना सर ही नहीं दिल भी मैं झुका दूँगा
मगर बताओ ज़रा आस्ताँ कहाँ है कोई
सितमगरी की हदें उस ने तोड़ डाली हैं
हमारी तरह मगर बे-ज़बाँ कहाँ है कोई
कभी तो पूरे शजर पर था अपना काशाना
हमारे नाम का अब आशियाँ कहाँ है कोई
तुम्हारी अपनी ही कश्ती डुबो न दे तुम को
हवा है तेज़ मगर बादबाँ कहाँ है कोई
हमारे पाँव तले की ज़मीन खींचते हो
हमारे बा'द तुम्हारा जहाँ कहाँ है कोई
करोगे ग़ौर तो 'अंजुम' समझ में आएगा
ज़मीं है चारों तरफ़ आसमाँ कहाँ है कोई
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ग़ज़ल
सभी तो हैं मगर अब मेहरबाँ कहाँ है कोई
मुश्ताक़ अंजुम