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सबा में मस्त-ख़िरामी गुलों में बू न रहे | शाही शायरी
saba mein mast-KHirami gulon mein bu na rahe

ग़ज़ल

सबा में मस्त-ख़िरामी गुलों में बू न रहे

साजिदा ज़ैदी

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सबा में मस्त-ख़िरामी गुलों में बू न रहे
तिरा ख़याल अगर दिल के रू-ब-रू न रहे

तिरे बग़ैर हर इक आरज़ू अधूरी है
जो तू मिले तो मुझे कोई आरज़ू न रहे

है जुस्तुजू में तिरी इक जहाँ का दर्द-ओ-निशात
तो क्या अजब कि कोई और जुस्तुजू न रहे

तिरी तलब से इबारत है सोज़-ओ-हयात
हो सर्द आतिश-ए-हस्ती जो दिल में तू न रहे

तू ज़ौक़-ए-कम-तलबी है तो आरज़ू का शबाब
है यूँ कि तू रहे और कोई जुस्तुजू न रहे

किताब-ए-उम्र का हर बाब बे-मज़ा हो जाए
जो दर्द मैं न रहूँ और दाग़ तू न रहे

ख़ुदा करे न वो उफ़्ताद आ पड़े हम पर
कि जान-ओ-दिल रहें और तेरी आरज़ू न रहे

तिरे ख़याल की मय दिल में यूँ उतारी है
कभी शराब से ख़ाली मिरा सुबू न रहे

वो दश्त-ए-दर्द सही तुम से वास्ता तो रहे
रहे ये साया-ए-गेसू-ए-मुश्क-बू न रहे

करो हमारे ही दाग़ों से रौशनी तुम भी
बड़ा है दर्द का रिश्ता दुई की बू न रहे

नहीं क़रार की लज़्ज़त से आश्ना ये वजूद
वो ख़ाक मेरी नहीं है जो कू-ब-कू न रहे

इस इल्तिहाब में कैसे ग़ज़ल-सरा हो कोई
कि साज़-ए-दिल न रहे ख़ू-ए-नग़्मा-जू न रहे

सफ़र तवील है इस उम्र-ए-शो'ला-सामाँ का
वो क्या करे जिसे जीने की आरज़ू न रहे