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सबा गुलों की हर इक पंखुड़ी सँवारती है | शाही शायरी
saba gulon ki har ek pankhuDi sanwarti hai

ग़ज़ल

सबा गुलों की हर इक पंखुड़ी सँवारती है

रिन्द साग़री

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सबा गुलों की हर इक पंखुड़ी सँवारती है
अजीब ढंग से ये आरती उतारती है

उफ़ुक़ पे फिर उभर आए हैं तीरगी के नशेब
उमीद जीती हुई दिल की बाज़ी हारती है

लहक के गुज़री है कुछ यूँ मुराद की ख़ुशबू
कि रूह फिर दिल-ए-हस्सास को पुकारती है

ख़मोश शहर की सुनसान सर्द रातों में
तुम्हारी याद मिरे साथ शब गुज़ारती है

चराग़-ए-हसरत-ओ-अरमाँ जलाओगे कैसे
हवा-ए-दहर तो रह रह के फूँक मारती है

सजाए हैं बड़ी मुश्किल से 'रिंद' पलकों पर
जिन्हें तुम अश्क समझते हो दिल की आरती है