EN اردو
सब पिघल जाए तमाशा वो इधर कब होगा | शाही शायरी
sab pighal jae tamasha wo idhar kab hoga

ग़ज़ल

सब पिघल जाए तमाशा वो इधर कब होगा

क़मर इक़बाल

;

सब पिघल जाए तमाशा वो इधर कब होगा
मोम के शहर से सूरज का गुज़र कब होगा

ख़्वाब काग़ज़ के सफ़ीने हैं बचाएँ कैसे
ख़त्म इस आग के दरिया का सफ़र कब होगा

जिस का नक़्शा है मिरे ज़ेहन में इक मुद्दत से
घर वो तामीर से पहले ही खंडर कब होगा

मेरे खोए हुए महवर पे जो पहुँचाए मुझे
अब लहू में मिरे पैदा वो भँवर कब होगा

सब्ज़ रक्खा है जिसे मैं ने लहू दे के 'क़मर'
मेहरबाँ धूप में आख़िर वो शजर कब होगा