सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है
कौन फिरता है ये मुर्दार लिए फिरती है
घर से बाहर न निकलता कभी अपने ख़ुर्शीद
हवस-ए-गर्मी-ए-बाज़ार लिए फिरती है
वो मिरे अख़्तर-ए-ताले की है वाज़ूँ गर्दिश
कि फ़लक को भी निगूँ-सार लिए फिरती है
कर दिया क्या तिरे अबरू ने इशारा क़ातिल
कि क़ज़ा हाथ में तलवार लिए फिरती है
जा के इक बार न फिरना था जहाँ वाँ मुझ को
बे-क़रारी है कि सौ बार लिए फिरती है
ग़ज़ल
सब को दुनिया की हवस ख़्वार लिए फिरती है
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़