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सब की मौजूदगी समझता है | शाही शायरी
sab ki maujudgi samajhta hai

ग़ज़ल

सब की मौजूदगी समझता है

बशीर महताब

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सब की मौजूदगी समझता है
दिल किसी की कमी समझता है

एक ही शख़्स से मैं वाक़िफ़ हूँ
जो मुझे अजनबी समझता है

गो मुझे जानता नहीं लेकिन
वो मिरी शाइ'री समझता है

वस्ल के अश्क हिज्र के आँसू
वो नमी को नमी समझता है

वही मेरी ज़बाँ से है वाक़िफ़
जो मिरी ख़ामुशी समझता है

आप के सामने मैं ख़ुश हूँ मगर
मेरे दुख राम ही समझता है

यही उर्दू ज़बाँ का है जादू
अब मुझे हर कोई समझता है

मैं उसे बात दिल की कहता हूँ
वो उसे शाइ'री समझता है

इतना नादान भी नहीं है वो
जो तुम्हारी हँसी समझता है

कौन 'महताब' अब तुम्हारा है
कौन दिल की लगी समझता है