सब की आँखें तो खुली हैं देखता कोई नहीं
साँस सब की चल रही है जी रहा कोई नहीं
मैं सिसकने की सदाएँ सुन रहा हूँ बार बार
आप कहते हैं कि घर में दूसरा कोई नहीं
ज़िंदगानी ने लिए गो इम्तिहाँ-दर-इम्तिहाँ
ज़िंदगानी से मुझे फिर भी गिला कोई नहीं
कोई तो आख़िर चलाता है निज़ाम-ए-दो-जहाँ
कैसे मुमकिन है ख़ुदाई है ख़ुदा कोई नहीं
मेरी सारी कोशिशों के काविशों के बावजूद
मेरे सारे काम बिगड़े हैं बना कोई नहीं

ग़ज़ल
सब की आँखें तो खुली हैं देखता कोई नहीं
राणा गन्नौरी