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सब का चेहरा पस-ए-दीवार-ए-अना रहता है | शाही शायरी
sab ka chehra pas-e-diwar-e-ana rahta hai

ग़ज़ल

सब का चेहरा पस-ए-दीवार-ए-अना रहता है

सुल्तान अख़्तर

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सब का चेहरा पस-ए-दीवार-ए-अना रहता है
आईने से यहाँ हर शख़्स ख़फ़ा रहता है

फिर भी हम लोग वहाँ जीते हैं जीने की तरह
मौसम-ए-क़हर जहाँ ठहरा हुआ रहता है

उस के आने की अब उम्मीद नहीं है रौशन
फिर भी दरवाज़ा-ए-दिल है कि खुला रहता है

रंग-ए-ताबीर चमकता ही नहीं आँखों में
रात भर ख़्वाब का बाज़ार सजा रहता है

बस उसी अक्स से ख़ाइफ़ है हर इक शख़्स यहाँ
आईना-ख़ाने में जो चेहरा-नुमा रहता है

ख़ाना-ए-दिल पे हुकूमत है उसी की 'अख़्तर'
ये अलग बात कि वो मुझ से ख़फ़ा रहता है