सारी ख़िल्क़त एक तरफ़ थी और दिवाना एक तरफ़
तेरे लिए मैं पाँव पे अपने जम के खड़ा था एक तरफ़
एक इक कर के हर मंज़िल की सम्त ही भूल रहा था मैं
धीरे धीरे खींच रहा था तेरा रिश्ता एक तरफ़
दोनों से मैं बच कर तेरे ख़्वाब-ओ-ख़याल से गुज़र गया
दिल का सहरा एक तरफ़ था आँख का दरिया एक तरफ़
आगे आगे भाग रहा हूँ अब वो मेरे पीछे है
इक दिन तेरी चाह में की थी मैं ने दुनिया एक तरफ़
दूसरी जानिब इक बादल ने बढ़ कर ढाँप लिया था चाँद
और आँखों में डूब रहा था दिल का सितारा एक तरफ़
वक़्त-जुआरी की बैठक में जो आया सो हार गया
'अख़्तर' इक दिन मैं भी दामन झाड़ के निकला एक तरफ़
ग़ज़ल
सारी ख़िल्क़त एक तरफ़ थी और दिवाना एक तरफ़
अख्तर शुमार