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साक़िया तंज़ न कर चश्म-ए-करम रहने दे | शाही शायरी
saqiya tanz na kar chashm-e-karam rahne de

ग़ज़ल

साक़िया तंज़ न कर चश्म-ए-करम रहने दे

क़मर मुरादाबादी

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साक़िया तंज़ न कर चश्म-ए-करम रहने दे
मेरे साग़र में अगर कम है तो कम रहने दे

इश्क़-ए-आवारा को महरूम-ए-करम रहने दे
अपने माथे पे शिकन ज़ुल्फ़ में ख़म रहने दे

तू ज़माने को मिटाता है मिटा दे लेकिन
इश्क़ की राह में कुछ नक़्श-ए-क़दम रहने दे

मेरे उलझे हुए हालात ग़नीमत हैं मुझे
दिल की बातों में न आ पुर्सिश-ए-ग़म रहने दे

आशियाँ फूँक के तकमील-ए-चराग़ाँ कर दे
फ़स्ल-ए-गुल आई है गुलशन का भरम रहने दे

ज़िंदगी ग़म से सँवरती है निखरती है क़मर
ज़िंदगी को यूँही आलूदा-ए-ग़म रहने दे