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साक़ी की हर निगाह में सहबा थी जाम था | शाही शायरी
saqi ki har nigah mein sahba thi jam tha

ग़ज़ल

साक़ी की हर निगाह में सहबा थी जाम था

सत्यपाल जाँबाज़

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साक़ी की हर निगाह में सहबा थी जाम था
कल शग़्ल-ए-मय-कशी का हमें इज़्न-ए-आम था

हम कुश्ता-ए-ख़िज़ाँ सही ऐ दोस्तो मगर
आसूदा-ए-बहार हमारा ही नाम था

मेरे बग़ैर आज वो कितने हैं शादमाँ
जिन को मिरे फ़िराक़ में जीना हराम था

देखा जो मय-कदे में उसे और बढ़ गया
मेरी नज़र में शैख़ का जो एहतिराम था

हम बे-नियाज़ियों का गिला तुझ से क्या करें
ऐ दोस्त अपना जज़्बा-ए-उल्फ़त ही ख़ाम था

उन से नज़र मिली कि नई ज़िंदगी मिली
उन की निगाह-ए-नाज़ में कैसा पयाम था

दार-ओ-रसन को चूम के क़ुर्बान हो गया
'जाँबाज़' बिल-यक़ीन ये तेरा ही काम था