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साँसों की जल-तरंग पर नग़्मा-ए-इश्क़ गाए जा | शाही शायरी
sanson ki jal-tarang par naghma-e-ishq gae ja

ग़ज़ल

साँसों की जल-तरंग पर नग़्मा-ए-इश्क़ गाए जा

गणेश बिहारी तर्ज़

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साँसों की जल-तरंग पर नग़्मा-ए-इश्क़ गाए जा
ऐ मिरी जान-ए-आरज़ू तू यूँही मुस्कुराए जा

हुस्न-ए-ख़िराम-ए-नाज़ से जादू नए जगाए जा
जब भी जहाँ पड़ें क़दम फूल वहीं खिलाए जा

आग लगा के हँस कभी बन के घटा बरस कभी
बिखरा के ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं होश मिरे उड़ाए जा

बरसों के बाद आँखों में छलकी है प्यार की शराब
बंद न कर ये मय-कदे ऐसे ही बस पिलाए जा

मस्ती भी है समाँ भी है महफ़िल-ए-दिलबराँ भी है
ऐसे में 'तर्ज़' झूम कर रंग-ए-ग़ज़ल जमाए जा