EN اردو
साअत-ए-हिज्र जब सताती है | शाही शायरी
saat-e-hijr jab satati hai

ग़ज़ल

साअत-ए-हिज्र जब सताती है

सईद नक़वी

;

साअत-ए-हिज्र जब सताती है
वक़्त की नब्ज़ रुक सी जाती है

चीज़ें अपनी जगह पे रहती हैं
तीरगी बस उन्हें छुपाती है

शोर में जो सदाएँ दब जाएँ
ख़ामुशी फिर वही सुनाती है

धूप की आँच है जो रात गए
चाँदनी बन के मुस्कुराती है

हुस्न शायद इसी को कहते हैं
जब नज़र लौट लौट जाती है

वो मिरी जीत तेरे नाम से थी
हाँ मगर हार मेरी ज़ाती है

चाँद जब धूप में निकलता है
चाँदनी कब नज़र में आती है

ख़्वाब देखा हो जिन की आँखों ने
सुब्ह-ए-नौ बस उन्हें बुलाती है