रूठ जाए वो मह-जबीं न कहीं
लब पे आ जाए फिर नहीं न कहीं
हम ने दुनिया को छान मारा है
तुझ सा देखा मगर हसीं न कहीं
तेरी जानिब से मुझ को खटका है
ग़ैर हो जाए दिल-नशीं न कहीं
शिकवा दुश्मन का करते डरता हूँ
हो वही मार-ए-आस्तीं न कहीं
दिल को मेरे चुरा के ले जाए
वो बुत-ए-सेहर-आफ़रीं न कहीं
ये न कहिए किसी से उल्फ़त से
खाएँ धोका यहाँ हमीं न कहीं
मुद्दआ' दिल का क्या कहें उस से
हम से बिगड़े वो नाज़नीं न कहीं
दिल किसी बुत के दिल से मिलता है
एक हो जाएँ कुफ़्र-ओ-दीं न कहीं
शे'र कहना समझ के ऐ शंकर
कोई मिल जाए नुक्ता-चीं न कहीं

ग़ज़ल
रूठ जाए वो मह-जबीं न कहीं
शंकर लाल शंकर