रूह को अपनी तह-ए-दाम नहीं कर सकता
मैं कभी सुब्ह से यूँ शाम नहीं कर सकता
उम्र-भर साथ तो रह सकता हूँ तेरे लेकिन
अपनी आँखें मैं तिरे नाम नहीं कर सकता
तुझ को इतना नहीं मालूम मिरे बारे में
शर्त रख कर मैं कोई काम नहीं कर सकता
मुझ पे हर इक से मोहब्बत की ये तोहमत न लगा
मैं कि इस जज़्बे को यूँ आम नहीं कर सकता
इस क़दर उलझा हुआ रहता हूँ ख़ुद से कि 'रविश'
दो घड़ी को भी मैं आराम नहीं कर सकता
ग़ज़ल
रूह को अपनी तह-ए-दाम नहीं कर सकता
शमीम रविश