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रूह अफ़्सुर्दा तबीअत मिरी ग़म-कोश हुई | शाही शायरी
ruh afsurda tabiat meri gham-kosh hui

ग़ज़ल

रूह अफ़्सुर्दा तबीअत मिरी ग़म-कोश हुई

अलीम मसरूर

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रूह अफ़्सुर्दा तबीअत मिरी ग़म-कोश हुई
ज़िंदगी अपने ही मातम में सियह-पोश हुई

फ़िक्र-ए-फ़र्दा हुई या फ़िक्र-ए-ग़म-ए-दोश हुई
तेरी याद आई कि हर बात फ़रामोश हुई

सोहबत-ए-शैख़ हुई सोहबत-ए-मय-नोश हुई
जोश में रूह न फिर आई जो मदहोश हुई

ज़िंदगी उन के फ़सानों से भी उक्ता सी गई
जो थी सर-ता-ब-क़दम गोश गिराँ-गोश हुई

जाने क्या महफ़िल-ए-परवाना में देखा उस ने
फिर ज़बाँ खुल न सकी शम्अ जो ख़ामोश हुई