रुमूज़-ए-मस्लहत को ज़ेहन पर तारी नहीं करता
ज़मीर-ए-आदमिय्यत से मैं ग़द्दारी नहीं करता
क़लम शाख़-ए-सदाक़त है ज़बाँ बर्ग-ए-अमानत है
जो दिल में है वो कहता हूँ अदाकारी नहीं करता
मैं आख़िर आदमी हूँ कोई लग़्ज़िश हो ही जाती है
मगर इक वस्फ़ है मुझ में दिल-आज़ारी नहीं करता
मैं दामान-ए-नज़र में किस लिए सारा चमन भर लूँ
मिरा ज़ौक़-ए-तमाशा बार-बरदारी नहीं करता
मुकाफ़ात-ए-अमल ख़ुद रास्ता तज्वीज़ करती है
ख़ुदा क़ौमों पे अपना फ़ैसला जारी नहीं करता
मिरे बच्चे तुझे इतना तवक्कुल रास आ जाए
कि सर पर इम्तिहाँ है और तय्यारी नहीं करता
मैं 'आसी' हुस्न की आईना-दारी ख़ूब करता हूँ
मगर मैं हुस्न की आईना-बरदारी नहीं करता
ग़ज़ल
रुमूज़-ए-मस्लहत को ज़ेहन पर तारी नहीं करता
आसी करनाली