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रुख़ पे भूली हुई पहचान का डर तो आया | शाही शायरी
ruKH pe bhuli hui pahchan ka Dar to aaya

ग़ज़ल

रुख़ पे भूली हुई पहचान का डर तो आया

नश्तर ख़ानक़ाही

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रुख़ पे भूली हुई पहचान का डर तो आया
कम से कम भीड़ में इक शख़्स नज़र तो आया

न सही शहर-ए-अमाँ ज़ेहन का कूफ़ा ही सही
घोर जंगल की मसाफ़त में नगर तो आया

कट गया मुझ से मिरी ज़ात का रिश्ता लेकिन
मुझ को इस शहर में जीने का हुनर तो आया

मेरे सीने की तरफ़ ख़ुद मिरे नाख़ुन लपके
आख़िर इस ज़ख़्म की टहनी पे समर तो आया

कुछ तो सोए हुए एहसास के बाज़ू थिरके
अब के पानी का भँवर ता-ब-कमर तो आया

बंद कमरे की उमस कुछ तो शनासा निकली
सुब्ह के साथ का भटका हुआ घर तो आया

तन की मिट्टी में उगा ज़हर का पौदा चुप-चाप
मुझ में बदली हुई दुनिया का असर तो आया