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रोकता है ग़म-ए-इज़हार से पिंदार मुझे | शाही शायरी
rokta hai gham-e-izhaar se pindar mujhe

ग़ज़ल

रोकता है ग़म-ए-इज़हार से पिंदार मुझे

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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रोकता है ग़म-ए-इज़हार से पिंदार मुझे
मेरे अश्कों से छुपा ले मिरे रुख़्सार मुझे

देख ऐ दश्त-ए-जुनूँ भेद न खुलने पाए
ढूँडने आए हैं घर के दर-ओ-दीवार मुझे

सी दिए होंट उसी शख़्स की मजबूरी ने
जिस की क़ुर्बत ने किया महरम-ए-असरार मुझे

मेरी आँखों की तरफ़ देख रहे हैं अंजुम
जैसे पहचान गई रूह-ए-शब-तार मुझे

जिंस-ए-वीरानी-ए-सहरा मेरी दूकान में है
क्या ख़रीदेगा तिरे शहर का बाज़ार मुझे

जरस-ए-गुल ने कई बार पुकारा लेकिन
ले गई राह से ज़ंजीर की झंकार मुझे

नावक-ए-ज़ुल्म उठा दशना-ए-अंदोह सँभाल
लुत्फ़ के ख़ंजर-ए-बे-नाम से मत मार मुझे

सारी दुनिया में घनी रात का सन्नाटा था
सेहन-ए-ज़िंदाँ में मिले सुब्ह के आसार मुझे