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रिवाक़-ए-कहकशाँ से भी हो आगे तक गुज़र तेरा | शाही शायरी
riwaq-e-kahkashan se bhi ho aage tak guzar tera

ग़ज़ल

रिवाक़-ए-कहकशाँ से भी हो आगे तक गुज़र तेरा

फ़रहत नादिर रिज़्वी

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रिवाक़-ए-कहकशाँ से भी हो आगे तक गुज़र तेरा
कि तेरा इश्क़ है मंज़िल तिरी अज़्म-ए-सफ़र तेरा

रमीदा वुसअ'तें हूँ तुंदी-ए-रफ़्तार से तेरी
बरी हो तंगी-ए-अफ़्क़ार से आहू-ए-सर तेरा

ज़माना ठहर कर पूछे तेरी रफ़्तार-ओ-सुरअत से
मुझे भी साथ लेता चल इरादा है किधर तेरा

हयात मुख़्तसर और बे-करानी सैल-ए-इम्काँ की
रक़म होगा सर-ए-अफ़्लाक क़िस्सा मो'तबर तेरा

किसी बहर-ए-मुहीत-ए-बे-कराँ की आरज़ू में है
ये तूफ़ानों की मौजों में सँवरने का हुनर तेरा

मियान-ए-आब-ओ-गिल इक बर्क़ है शो'ला है शबनम है
ये दिल ये क़तरा-ए-ख़ूँ ये वजूद-ए-मुख़्तसर तेरा

तड़प कि जुस्तुजू की राह में ये भी इबादत है
तिरी हर आह-ए-सोज़ाँ है पयाम-ए-पुर-असर तेरा

मुसाफ़िर है मसाफ़त का सिला है आबला-पाई
भला कब साथ छोड़ेगी ये गर्दिश उम्र-भर तेरा

जलन आँखों में सूखे लब ग़ुबार-ए-ज़िंदगी रुख़ पर
थकन की दास्ताँ कहता है हुलिया सर-ब-सर तेरा

कभी रख कर किसी ज़ानू पे सर आराम भी कर ली
घनी है छाँव क्यूँ खुलता नहीं बंद कमर तेरा

चराग़-ए-आरज़ू की लौ भड़कने दे अभी 'फ़रहत'
वही तन्हा शब-ए-फ़ुर्क़त में होगा हम-सफ़र तेरा