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रिंदान-ए-बादा-नोश की छागल उठा तो ला | शाही शायरी
rindan-e-baada-nosh ki chhagal uTha to la

ग़ज़ल

रिंदान-ए-बादा-नोश की छागल उठा तो ला

नातिक़ गुलावठी

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रिंदान-ए-बादा-नोश की छागल उठा तो ला
बाद-ए-बहार दौड़ के बादल उठा तो ला

आ उम्र-ए-रफ़्ता हश्र के दम-ख़म भी देख लें
तूफ़ान-ए-ज़िंदगी की वो हलचल उठा तो ला

सर से दयार-ए-ग़म के सनीचर उतार दे
मंगल है जिस में जा के वो जंगल उठा तो ला

लालच बता के दूर से वाइज़ का रंग देख
ख़ाली ही क्यूँ न हो कोई बोतल उठा तो ला

ऐ ज़िंदगी जुनूँ न सही बे-ख़ुदी सही
तू कुछ भी अपनी अक़्ल से पागल उठा तो ला

आती है याद सुब्ह-ए-मसर्रत की बार बार
ख़ुर्शीद आते आते उसे कल उठा तो ला

कश्ती है घाट पर तो चले क्यूँ न दौर आज
कल बस चले चले न चले चल उठा तो ला

'नातिक़' जुनून-ए-ख़िदमत-ए-अहबाब किस लिए
देखें तो क्या मिला है तुझे फल उठा तो ला