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रौशनी मेरे चराग़ों की धरी रहना थी | शाही शायरी
raushni mere charaghon ki dhari rahna thi

ग़ज़ल

रौशनी मेरे चराग़ों की धरी रहना थी

याक़ूब यावर

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रौशनी मेरे चराग़ों की धरी रहना थी
फिर भी सूरज से मिरी हम-सफ़री रहना थी

मौसम-ए-दीद में इक सब्ज़-परी का साया
अब गिला क्या कि तबीअत तो हरी रहना थी

मैं कि हूँ आदम-ए-आज़िम की रिवायत का नक़ीब
मेरी शोख़ी सबब-ए-दर-ब-दरी रहना थी

ख़्वाब इरफ़ान-ए-हक़ीक़त के तमन्नाई थे
ज़िंदगी और मिरी राहबरी रहना थी

आज भी ज़ख़्म ही खिलते हैं सर-ए-शाख़-ए-निहाल
नख़्ल-ए-ख़्वाहिश पे वही बे-समरी रहना थी

साज़-ओ-सामान-ए-तअय्युश तो बहुत थे 'यावर'
अपने हिस्से में यही हर्फ़-गरी रहना थी