EN اردو
रौशनी ले कर अँधेरी रात में निकला न कर | शाही शायरी
raushni le kar andheri raat mein nikla na kar

ग़ज़ल

रौशनी ले कर अँधेरी रात में निकला न कर

ख़लील रामपुरी

;

रौशनी ले कर अँधेरी रात में निकला न कर
रात पर्दे के लिए है ख़ुद को बे-पर्दा न कर

दहर का फैलाव भी नुक़्ता नज़र आने लगे
शेर कहता है तो कह इतना मगर सोचा न कर

एक दिन तू भी किसी तारे से टकरा जाएगा
दोस्त मेरे रात की गलियों में यूँ घूमा न कर

चाँद भी उतरा था पिछली शब इसी तालाब में
क्यूँ चमकता है नहा धो कर बदन पोंछा न कर

आइना चमकाए रख सब कुछ नज़र आ जाएगा
जिस की चाहत हो उसे ख़ुद से जुदा समझा न कर

दोपहर की लहर चेहरे को झुलस देगी 'ख़लील'
घर की ठंडक छोड़ कर पेड़ों तले बैठा न कर