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रौशनी भर ख़ला पे बार थे हम | शाही शायरी
raushni bhar KHala pe bar the hum

ग़ज़ल

रौशनी भर ख़ला पे बार थे हम

पी पी श्रीवास्तव रिंद

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रौशनी भर ख़ला पे बार थे हम
धुँद मंज़र पस-ए-ग़ुबार थे हम

धूप में आए तो सुकून मिला
छाँव में थे तो दाग़दार थे हम

कोई दस्तक न कोई आहट थी
मुद्दतों वहम के शिकार थे हम

बुत-गरी में हुनर भी शामिल था
संग-साज़ी से होशियार थे हम

क़र्ज़ कोई भी जिस्म ओ जाँ पे न था
ज़िंदगी पर मगर उधार थे हम

ज़ुल्मतें तो चराग़-ए-ख़ेमा थीं
ख़ल्वतों के गुनाहगार थे हम

फ़िक्र ओ मअ'नी तलाज़मे तश्बीह
ऐ ग़ज़ल तेरे जाँ-निसार थे हम

'रिंद' था बेकसी का लुत्फ़ अजीब
घर में रह कर भी बे-दयार थे हम