रौनक़ ही नहीं उस की हम रूह-ओ-रवाँ भी हैं
लेकिन हमें दुनिया की ख़ातिर पे गराँ भी हैं
इक तेरे ही कूचे पर मौक़ूफ़ नहीं है कुछ
हर गाम हैं ताज़ीरें हम लोग जहाँ भी हैं
गुलचीं को नहीं शायद इस राज़ से आगाही
शबनम में नहाए गुल शो'लों की ज़बाँ भी हैं
खाते थे क़सम जिन के किरदार-ओ-अमल की हम
शामिल सफ़-ए-आ'दा में वो हम-नफ़साँ भी हैं
सच कहते हो हम ऐसे ज़र्रों की हक़ीक़त क्या
अब कौन कहे तुम से हम संग-ए-गिराँ भी हैं
ग़ज़ल
रौनक़ ही नहीं उस की हम रूह-ओ-रवाँ भी हैं
अख्तर लख़नवी