रौनक़-ए-अर्ज़-ओ-समा शम्स ओ क़मर मैं ही हूँ 
ग़ौर से देखिए ता-हद्द-ए-नज़र मैं ही हूँ 
हो लिए सारे तमाशाई किसी मंज़िल के 
रह गया मैं सो सर-ए-राहगुज़र मैं ही हूँ 
मुझ से मत पूछ कि किस तरह से उजड़ी बस्ती 
मुझ को बस देख ले रूदाद-ओ-ख़बर मैं ही हूँ 
मैं भी मुहताज-ए-मसीहाई तिरा हूँ लेकिन 
मत इधर आ कि मिरी जान इधर मैं ही हूँ 
मिरे मल्बूस हैं किम-ख़्वाब के पैवंद लगे 
ख़्वाब में शाम का ताबीर-ए-सहर मैं ही हूँ 
कश्तियाँ लिखती रहें रोज़ कहानी अपनी 
मौज कहती ही रही ज़ेर-ओ-ज़बर मैं ही हूँ 
वुसअत-ए-कारगह-ए-शीशागरी मआज़-अल्लाह 
ख़ाक मैं जाम भी मैं दस्त-ए-हुनर मैं ही हूँ
 
        ग़ज़ल
रौनक़-ए-अर्ज़-ओ-समा शम्स ओ क़मर मैं ही हूँ
मुज़फ़्फ़र अबदाली

