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रस्ते में लुट गया है तो क्या क़ाफ़िला तो है | शाही शायरी
raste mein luT gaya hai to kya qafila to hai

ग़ज़ल

रस्ते में लुट गया है तो क्या क़ाफ़िला तो है

जमील मलिक

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रस्ते में लुट गया है तो क्या क़ाफ़िला तो है
यारो नए सफ़र का अभी हौसला तो है

वामांदगी से उठ नहीं सकता तो क्या हुआ
मंज़िल से आश्ना न सही नक़्श-ए-पा तो है

हाथों में हाथ ले के यहाँ से गुज़र चलें
क़दमों में पुल-सिरात सही रास्ता तो है

माँगे की रौशनी तो कोई रौशनी नहीं
इस दौर-ए-मुस्तआर में अपना दिया तो है

ये क्या ज़रूर है मैं कहूँ और तू सुने
जो मेरा हाल है वो तुझे भी पता तो है

अपनी शिकायतें न सही तेरा ग़म सही
इज़हार-ए-दास्ताँ का कोई सिलसिला तो है

हम से कोई तअल्लुक़-ए-ख़ातिर तो है उसे
वो यार बा-वफ़ा न सही बेवफ़ा तो है

वो आए या न आए मुलाक़ात हो न हो
रंग-ए-सहर के पास ख़िराम-ए-सबा तो है

पाँव की चाप से मिरी धड़कन है हम-नवा
इस दश्त-ए-हौल में कोई नग़्मा-सरा तो है

सूरज हमारे घर नहीं आया तो क्या हुआ
दो-चार आँगनों में उजाला हुआ तो है

काँटा निकल भी जाएगा जब वक़्त आएगा
काँटे के दिल में भी कोई काँटा चुभा तो है

मैं रेज़ा रेज़ा उड़ता फिरूंगा हवा के साथ
सदियों में झाँक कर भी मुझे देखना तो है

आशोब-ए-आगही की शब-ए-बे-कनार में
तेरे लिए 'जमील' कोई सोचता तो है