रश्क-ए-अदू में देखो जाँ तक गँवा ही देंगे
लो झूट जानते हो इक दिन दिखा ही देंगे
आवाज़ की तरह से बैठेंगे आज ऐ जाँ
देखें तो आप क्यूँ कर हम को उठा ही देंगे
उड़ जाऊँगा जहाँ से आशिक़ का रंग हो कर
नक़्श-ए-क़दम नहीं हूँ जिस को मिटा ही देंगे
ग़ैरों की जुस्तुजू की मुद्दत से आरज़ू है
ये याद वो नहीं है जिस को भुला ही देंगे
शो'ले निकल रहे हैं हर उस्तुख़्वाँ से अपनी
शमएँ ये वो नहीं हैं जिस को बुझा ही देंगे
ख़ामोश गुफ़्तुगू हैं अफ़्सुर्दा आरज़ू हैं
वो दिल नहीं हमारा जिस को हँसा ही देंगे
उस ख़ाक तक पहुँच कर फिरना 'नसीम' मुश्किल
हूँ अश्क-ऊफ़्तादा क्यूँ कर उठा ही देंगे
ग़ज़ल
रश्क-ए-अदू में देखो जाँ तक गँवा ही देंगे
नसीम देहलवी