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रंज पर रंज मुसीबत सी मुसीबत देखी | शाही शायरी
ranj par ranj musibat si musibat dekhi

ग़ज़ल

रंज पर रंज मुसीबत सी मुसीबत देखी

मोहम्मद यूसुफ़ रासिख़

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रंज पर रंज मुसीबत सी मुसीबत देखी
हिज्र-ए-मौला में ये आराम की सूरत देखी

महव-ए-दीदार रहे हश्र में आशिक़ तेरे
आँख उठा कर न कभी ख़ुल्द की सूरत देखी

ले लिया वादा-ए-बख़्शिश भी दुहाई कर के
शाफ़े-ए-हश्र की उम्मत से मोहब्बत देखी

आ गई मुझ को नज़र ग़ायत-ए-चश्म-ए-मुश्ताक़
क़ब्र में आ के मोहम्मद की जो सूरत देखी

आज़माती है शब-ए-हिज्र मुझे क्या हमदम
मैं तो ख़ुश हूँ कि जुदाई की हक़ीक़त देखी

जल्वे का वा'दा क़यामत पे किया था मौक़ूफ़
आप के हिज्र में सौ बार क़यामत देखी

ख़ुश-नसीबी है कि मैं अशरफ़-ए-मख़्लूक़ हुआ
लिल्लाहिल-हम्द ग़म-ए-इश्क़ की लज़्ज़त देखी

ख़ार-ए-तैबा को गुल-ए-ख़ुल्द से बढ़ कर समझे
हम ने इन काँटों में वो बू-ए-मोहब्बत देखी

दौर-ए-साग़र से तो पहले ही न था होश मुझे
मैं ने साक़ी की निगाहों में करामत देखी

पर्दा-ए-हश्र में पोशीदा रखा अपना जमाल
उस ने जब तालिब-ए-दीदार की कसरत देखी

दुख़्तर-ए-रज़ की निगाहों से बचाए अल्लाह
आप ने 'रासिख़'-ए-मय-ख़्वार की हालत देखी