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रंज-ए-गिरान-ए-शौक़ का हासिल न कह इसे | शाही शायरी
ranj-e-giran-e-shauq ka hasil na kah ise

ग़ज़ल

रंज-ए-गिरान-ए-शौक़ का हासिल न कह इसे

मुग़नी तबस्सुम

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रंज-ए-गिरान-ए-शौक़ का हासिल न कह इसे
तर्क-ए-सफ़र किया है तू मंज़िल न कह इसे

ये ज़ब्त ज़ब्त-ए-ग़म नहीं इक बे-दिली सी है
ये दिल हरीफ़-ए-दर्द नहीं दिल न कह इसे

तुग़्यानीयाँ कुछ और हैं मौजों में रेत की
मैं डूबता हूँ इशरत-ए-साहिल न कह इसे

मरता नहीं हूँ मौत की बे-हासिली पे मैं
जीता अगर हूँ उल्फ़त-ए-हासिल न कह इसे

मिलना सफ़र का और बिछड़ना सफ़र का है
दुनिया तो रहगुज़ार है महफ़िल न कह इसे