रंगों लफ़्ज़ों आवाज़ों से सारे रिश्ते टूट गए
सैल-ए-बला में दश्त-ए-ख़ला के कितने किनारे टूट गए
गूँगे बहरे लोगों से अब सारी उम्र निबाहना है
जीना मरना एक बराबर कच्चे धागे टूट गए
दिल के गिर्द हिसार खिंचा तो उस का मिलना मुहाल हुआ
चारों खूँट आवारा फिरे जब पाँव भी अपने टूट गए
खंडर खंडर सब आवाज़ों से गूँज पड़ेंगे बोलो तो
एक सदा वो थी जिस से महलों के कंगरे टूट गए
शीशा-ओ-संग के खेल के साए में रहने वाले लोगो
इक इक कर के दिल में चुभो लो जो जो शीशे टूट गए
शोर-शराबा ख़ून-ख़राबा जो भी हो कुछ कम भी नहीं
शहर-पनाह के आहनी बोझल सब दरवाज़े टूट गए
चुप के बंधन टूटेंगे तो पाँव में लोहा बोलेगा
फिर देखोगे साँस के सारे रिश्ते-नाते टूट गए
ग़ज़ल
रंगों लफ़्ज़ों आवाज़ों से सारे रिश्ते टूट गए
शफ़क़त तनवीर मिर्ज़ा