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रंगों की वहशतों का तमाशा थी बाम-ए-शाम | शाही शायरी
rangon ki wahshaton ka tamasha thi baam-e-sham

ग़ज़ल

रंगों की वहशतों का तमाशा थी बाम-ए-शाम

मुनीर नियाज़ी

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रंगों की वहशतों का तमाशा थी बाम-ए-शाम
तारी था हर मकाँ पे जलाल-ए-दवाम-ए-शाम

गुलदस्ता-ए-जिहात था नैरंग-ए-राह-ए-इश्क़
था इक तिलिस्म-ए-हुस्न-ए-ख़याबान-ए-दाम-ए-शाम

आगे की मंज़िलों की तरफ़ शाम का सफ़र
जैसे शबों के दिल में था शहर-ए-क़याम-ए-शाम

बाँधे हुए हैं वक़्त सभी उस के हुक्म में
है जिस ख़ुदा के हाथ में कार-ए-निज़ाम-ए-शाम

धुँदला गई है शाम शब-ए-ख़ाम से 'मुनीर'
ख़ाली हुआ कशिश की शराबों से जाम-ए-शाम