EN اردو
रंग भरते जा रहे हैं रफ़्ता रफ़्ता | शाही शायरी
rang bharte ja rahe hain rafta rafta

ग़ज़ल

रंग भरते जा रहे हैं रफ़्ता रफ़्ता

ख़ावर नक़ीब

;

रंग भरते जा रहे हैं रफ़्ता रफ़्ता
गुल निखरते जा रहे हैं रफ़्ता रफ़्ता

अहद-ए-बरनाई के ये औराक़-ए-रंगीं
क्यूँ बिखरते जा रहे हैं रफ़्ता रफ़्ता

सीढ़ियाँ शीशे की पाँव संग के हैं
हम उतरते जा रहे हैं रफ़्ता रफ़्ता

अब तो हम अख़बार में छपने लगे हैं
नाम करते जा रहे हैं रफ़्ता रफ़्ता

रहगुज़ार-ए-शौक़ है ये ज़ीस्त जिस से
हम गुज़रते जा रहे हैं रफ़्ता रफ़्ता