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रम्ज़-गर भी गया रम्ज़-दाँ भी गया | शाही शायरी
ramz-gar bhi gaya ramz-dan bhi gaya

ग़ज़ल

रम्ज़-गर भी गया रम्ज़-दाँ भी गया

अब्बास ताबिश

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रम्ज़-गर भी गया रम्ज़-दाँ भी गया
हुस्न के साथ हुस्न-ए-बयाँ भी गया

सर से तारों भरी सर-ज़मीं भी गई
पाँव से ख़ाक का आसमाँ भी गया

फूल ही फूल थे कुंज-ए-आज़ार में
तुम वहाँ भी न थे मैं वहाँ भी गया

पहले मिट्टी उड़ी मंज़िलों की तरफ़
फिर उसे ढूँडने कारवाँ भी गया

मैं अकेला न था कू-ए-रुसवाई में
साथ वीराना-ए-जिस्म-ओ-जाँ भी गया

रंग पस्ती के फिर भी न इफ़्शा हुए
यूँ तो पाताल तक आसमाँ भी गया

इश्क़ में बाम-ओ-दर भी न पीछे रहे
साथ अपने मकीं के मकाँ भी गया

'ताबिश' अपने बसेरे की जानिब चलो
इस से क्या तुम को सूरज जहाँ भी गया