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रहने दे ये तंज़ के नश्तर अहल-ए-जुनूँ बेबाक नहीं | शाही शायरी
rahne de ye tanz ke nashtar ahl-e-junun bebak nahin

ग़ज़ल

रहने दे ये तंज़ के नश्तर अहल-ए-जुनूँ बेबाक नहीं

अख़्तर अंसारी अकबराबादी

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रहने दे ये तंज़ के नश्तर अहल-ए-जुनूँ बेबाक नहीं
कौन है अपने होश में ज़ालिम किस का गरेबाँ चाक नहीं

जब था ज़माना दीवानों का अब फ़रज़ाने आए हैं
जब सहरा में लाला-ओ-गुल थे अब गुलशन में ख़ाक नहीं

फ़ित्नों की अर्ज़ानी से अब एक इक तार आलूदा है
हम देखें किस किस के दामन एक भी दामन पाक नहीं

मौज-ए-तलातुम ख़ैर हैं हम साहिल के क़रीब आते ही नहीं
वक़्त की रौ में बह जाएँ हम ऐसे ख़स-ओ-ख़ाशाक नहीं

दर्द-ओ-कर्ब से हश्र बपा होंटों पे तबस्सुम है 'अख़्तर'
दिल का आलम कुछ भी रहे आँखें तो मगर नमनाक नहीं