EN اردو
रही है पर्दा-ए-उलफ़त में मस्लहत क्या क्या | शाही शायरी
rahi hai parda-e-ulfat mein maslahat kya kya

ग़ज़ल

रही है पर्दा-ए-उलफ़त में मस्लहत क्या क्या

ख़ुर्शीद रिज़वी

;

रही है पर्दा-ए-उलफ़त में मस्लहत क्या क्या
अदावतों में हुई है मुफ़ाहमत क्या क्या

मिरे अज़ीज़ वतन की फ़ज़ा ने भर दी है
मिरी सरिश्त के अंदर मुनाफ़िक़त क्या क्या

कभी उसूल की ग़ैरत कभी ज़ियाँ का सवाल
दिमाग़-ओ-दिल में रही है मुशावरत क्या क्या

सदा-ए-दिल को तह-ए-दिल में क़ैद कर के रखा
रहा है तौक़-ए-गुलू शौक़-ए-आफ़ियत क्या क्या

महक थमी जो लहू की तो चौंक कर हम ने
हवा से पूछी है ज़ख़्मों की ख़ैरियत क्या क्या

बहुत अज़ीज़ हैं आँखों की पुतलियाँ लेकिन
मिले हैं दुख भी मुझे उन की मा'रिफ़त क्या क्या

बहुत दिनों में कल आईना सामने पा कर
हुई है उम्र-ए-गुज़िश्ता की ताज़ियत क्या क्या

अटा हुआ ब-सर-ओ-चेहरा सीम-ओ-ज़र का ग़ुबार
मिली है लाशा-ए-अफ़्क़ार की दियत क्या क्या

निहाँ है तरकश-ए-इम्काँ में नावक-ए-तक़दीर
मुदाम सर पे सितारे हैं अन-गिनत क्या क्या