रह वफ़ा में कोई साहिब-ए-जुनूँ न मिला
दिलों में अज़्म तो पाए रगों में ख़ूँ न मिला
हज़ार हम से मुक़द्दर ने की दग़ा लेकिन
हमें मिटा के मुक़द्दर को भी सुकूँ न मिला
गुलों के रुख़ पे वही ताज़गी का आलम है
न जाने उन को ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ न मिला
कहाँ से लाए वो इक बुल-हवस मज़ाक़-ए-सलीम
जिसे नज़र तो मिली जज़्बा-ए-दरूँ न मिला
मिली थीं तर्क-ए-मोहब्बत के बा'द भी आँखें
मगर वो कैफ़ वो ए'जाज़ वो फ़ुसूँ न मिला
फ़लक-शिगाफ़ था इस दर्जा इज़्तिराब-ए-अमल
कि बंदगी में फ़रिश्तों को भी सुकूँ न मिला
न जाने किस के सहारे रुका हुआ है फ़लक
हमें तो फ़र्श-ए-ज़मीं पर कोई सुतूँ न मिला
ग़ज़ल
रह वफ़ा में कोई साहिब-ए-जुनूँ न मिला
शकील बदायुनी