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रह के पर्दे में रुख़-ए-पुर-नूर की बातें न कर | शाही शायरी
rah ke parde mein ruKH-e-pur-nur ki baaten na kar

ग़ज़ल

रह के पर्दे में रुख़-ए-पुर-नूर की बातें न कर

मुज़्तर ख़ैराबादी

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रह के पर्दे में रुख़-ए-पुर-नूर की बातें न कर
दूर से बातें सुना कर दूर की बातें न कर

बैठ कर दुनिया में ज़ाहिद हूर की बातें न कर
रह के इतनी दूर इतनी दूर की बातें न कर

लन-तरानी जल्वा-ए-जानाँ तिरी अच्छी नहीं
मैं कोई मूसा नहीं हूँ तूर की बातें न कर

मेरी बे-होशी बढ़ी जाती है इस तदबीर से
चारागर तू दीदा-ए-मख़मूर की बातें न कर

अपना ग़म मुझ को पराए ग़म से याद आने लगा
हम-नशीं मुझ से दिल-ए-रंजूर की बातें न कर

पास आने को जो कहता हूँ तो 'मुज़्तर' नाज़ से
कहते हैं चल दूर इतनी दूर की बातें न कर