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रह-ए-इरफ़ाँ में अपने होश को माइल समझते हैं | शाही शायरी
rah-e-irfan mein apne hosh ko mail samajhte hain

ग़ज़ल

रह-ए-इरफ़ाँ में अपने होश को माइल समझते हैं

हफ़ीज़ फ़ातिमा बरेलवी

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रह-ए-इरफ़ाँ में अपने होश को माइल समझते हैं
हुई जब बे-ख़ुदी तारी उसे मंज़िल समझते हैं

वुफ़ूक़-ए-शौक़ को है तंग अक़्सा-ए-दो-आलम भी
फ़ज़ा-ए-ला-मकाँ परवाज़ के क़ाबिल समझते हैं

बक़ा ज़ाहिर में ज़र्रात-ए-अदम का इक हयूला है
हक़ीक़त में फ़ना को ज़ीस्त का हासिल समझते

ज़माने का असर होता नहीं है हाल पर अपने
कि यकसाँ हालत-ए-माज़ी-ओ-मुस्तक़बिल समझते हैं